मदर टैरेसा
मदर टैरेसा को लोग दया-धर्म की देवी, गरीबों के दुःख की साथिन और
कुष्ठ रोगियों की मसीहा के रूप में जानते हैं। उनकी नि:स्वार्थ सेवाओं के कारण
उन्हें भारत-रत्न और विश्व के सब से बड़े सम्मान नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया
जा चुका है ।
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मदर टैरेसा का जन्म २७ अगस्त सन् १९१० ई. को यूगोस्लाविया के
स्कॉपजे नामक नगर में हुआ। इनके बचपन का नाम एग्नेस गोन्वरहा था । नन
(ईसाई-साध्वी) बनने के बाद इन्होंने अपना नाम टैरेसा रखा । अपने धार्मिक पिता
की प्रेरणा पाकर टैरेसा अठारह वर्ष की आयु में नन बन गई । सन् १९२९ ई.
में टैरेसा भारत आई और सेंट मेरी हाई स्कूल में अध्यापिका बन गई। फिर वह
स्कूल की प्रधान अध्यापिका भी बन गई ।
उसी टैरेसा को एक बार एक कुष्ठरोगी की सेवा करने में बडी शान्ति मिली ।
तभी उनके जीवन ने एक नया मोड लिया। उन्होंने पटना में नर्सिंग का प्रशिक्षण
लिया ओर १९४८ ई. में कलकत्ता में अपना प्रथम आश्रम ‘निर्मल-हृदय’ के नाम
से खोला। फिर तो टैरेसा अध्यापिका से मदर टैरेसा बन गई और माँ की तरह दीन-
दुखियों, अनाथों और कुष्ठ रोगियों की सेवा करने लगीं ।
मदर टैरेसा की संस्था इस समय देश भर में लगभग ७० विद्यालय, २५०
अस्पताल, २५ कुष्ठ निवारण केंन्द्र, २० अनाथाश्रम और २५ वृध्द-आश्रम चला
रही है । इन संस्थाओं मे लगभग २००० नन (साध्वियाँ) और सवा लाख कार्यकर्ता
सेवा-कार्यों में सहयोग दे रहे हैं। देश-विदेश के दानी मदर टैरेसा के सेवा
अभियान में धन दान देकर अपना योगदान दे रहे हैं ।
मदर टैरेसा की संस्थाओं में सब का स्वागत है। जहाँ उनकी संस्था में आश्रय
पाने वालों को आश्रय दिया जाता है। तो वही दान व सेवा करने वालों का भी
स्वागत किया जाता है। मदर टैरेसा की संस्थाओं का एक ही आदर्श है-‘मानव सेवा’
वह मानव-सेवा को ही सच्ची ईश्वर-पूजा मानती हैं। उनके इस पवित्र कार्य में सारा
जग उनके साथ है